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________________ 94 ] [ आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम इसके बाद लगातार एक सौ तेतीसवीं गाथा तक इसी बात को अनेक प्रकार से पुष्ट किया गया है। पद्मप्रभमलधारिदेव का वह कलश, जिसके आधार पर उन्हें भावी तीर्थंकर कहा जाता है, परमसमाघि-अधिकार में ही आता है। उक्त दो सौ बारहवां कलश मूलतः इसप्रकार है : "मात्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे तिष्टत्युच्यः परमयमिनः शुद्धदृष्टेमनश्चेत् / तस्मिन् बाढ़ भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे साक्षावेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे // यदि शुद्ध दृष्टिवन्त जीव ऐसा समझता है कि परममुनि को तप में, नियम में, संयम में और सच्चारित्र में सदा आत्मा ही ऊर्ध्व रहता है तो राग के नाश के कारण उस भवभयहर अभिराम भावितीर्थनाथ को यह साक्षात् सहज समता निश्चित है / " इसके बाद एक सौ चौतीसवीं गाथा से दशवा परमभक्तिअधिकार प्रारम्भ होता है, जो एक सौ चालीसवीं गाथा तक चलता है। परमभक्ति का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए इस अधिकार में समागत पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा लिखित निम्नांकित कलशों को प्रस्तुत करना उचित प्रतीत होता है, जिनमें समस्त परमभक्तिअधिकार का सारांश समाहित है :-- "प्रात्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् / ___ स योगभक्तियुक्तः स्यनिश्चयेन मुनीश्वरः॥' जो यह आत्मा आत्मा को प्रात्मा के साथ निरन्तर जोड़ता है, वह निश्चय से योगभक्तिवाला मुनीश्वर है / " / "सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे, भक्तिं कुर्यादनिशमतुला यो भवच्छेवदक्षाम् / कामक्रोधाखिलदुरघवतानिर्मुक्तचेताः, भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावकः संयमी वा // 1 तात्पर्यवृत्ति, छन्द 228 2 तात्पर्यवृत्ति, छन्द 220
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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