________________ नियमसार ] [ 63 यह बात निम्नांकित गाथा पर ध्यान देने पर स्पष्ट हो जाती है:"मोतूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स // ' समस्त जल्प (वचन विस्तार) को छोड़कर तथा अनागत शुभ-अशुभभाव का निवारण करके जो प्रात्मा को ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान है।" इसमें 'अनागत' शब्द ध्यान देने योग्य है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्याख्यान भविष्यसम्बन्धी दोषों के त्याग से सम्बन्धित होता है / इसके बाद आठवां शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार प्रारम्भ होता ह, जो एक सौ इक्कीसवीं गाथा तक चलता है। इसमें भी आत्मध्यान को ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त कहा गया है। इसमें तो साफ-साफ लिखा है : "कि बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं / पायच्छित्तं जारणह अणेयकम्मारण खयहेऊ // अधिक कहने से क्या ? अनेक कर्मों के क्षय का हेतु महर्षियों द्वारा किया गया तपश्चरण ही प्रायश्चित्त जानो।" इसमें तपश्चरण को शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त कहा गया है, तथापि ध्यान ही तो सर्वोत्कृष्ट तप है; अतः ध्यान ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त हुआ। आगे चलकर ध्यान को भी स्पष्टरूप से शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त कहा गया है। इसके बाद परमसमाधि-अधिकार प्रारम्भ होता है, जिसकी पहली गाथा में ही कहा गया है : "धयरपोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण / जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स // 3 वचनोच्चारण क्रिया त्यागकर वीतरागभाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परमसमाधि है।" 1 नियमसार, गाथा 65 2 नियमसार, गाथा 117 3 नियमसार, गाथा 122