________________ 62 ] [ आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम इसप्रकार ७६वीं गाथा तक व्यवहारचारित्राधिकार समाप्त हो जाता है। अब निश्चयचारित्र के अन्तर्गत परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार प्रारम्भ होता है। इस अधिकार की प्रारम्भिक पांच गाथाओं को टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव पंचरत्न कहते हैं। इनमें नारकादि, गुणस्थानादि, बालकादि, रागादि एवं क्रोधादि भावों का निश्चय से आत्मा कर्ता, कारयिता, अनुमंता व कारण नहीं है - यह बताया गया है। इसके बाद एक गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि उक्त भावना से जिस माध्यस्थ्य भाव की उत्पत्ति होती है, उसे निश्चयचारित्र कहते हैं। फिर प्रतिक्रमण की चर्चा प्रारम्भ होती है। यह अधिकार ६४वीं गाथा तक चलता है। इस अधिकार के सम्पूर्ण प्रतिपादन का सार यह है कि आत्माराधना ही वस्तुतः परमार्थप्रतिक्रमण है। निष्कर्ष के रूप में निम्नांकित गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है : "झारणरिणलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं / तम्हा दु झाणमेव हि सव्वविचारस्स पछिकमणे // ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करते हैं; इसलिए ध्यान ही वास्तव में सर्व अतिचार का प्रतिक्रमण है।" ९५वीं गाथा से निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार प्रारम्भ होता है, जो १०६वीं गाथा तक चलता है / इसके बाद ११२वीं गाथा तक परमालोचनाधिकार है। परमार्थप्रत्याख्यान और परम-आलोचना अधिकार परमार्थप्रतिक्रमण के समान ध्यानरूप ही हैं। प्रतिक्रमण में ध्यान द्वारा भूतकाल के दोषों का निराकरण होता है, तो आलोचना और प्रत्याख्यान में वर्तमान और भविष्य का - मात्र यही अन्तर है। 1 नियमसार, गाथा 63