________________ नियमसार ] [ 61 जीवाधिकार में उन्नीस गाथायें हैं। जिनमें मंगलाचरण और ग्रन्थ प्रतिज्ञा के बाद मोक्ष और मोक्षमार्ग की चर्चा की गई है तथा प्रतिपाद्य विषय के आधार पर नियमसार नाम की सार्थकता बताई इसके बाद रत्नत्रयरूप नियम का निरूपरण प्रारम्भ होता है / सर्वप्रथम व्यवहार सम्यग्दर्शन के प्रतिपादन में प्राप्त और आगम के स्वरूप का प्रतिपादन है। इसप्रकार आठ गाथायें तो आरंभिक भूमिकारूप ही हैं। नौवीं गाथा में छह द्रव्यों के नाम बताकर दशवी गाथा से जीवद्रव्य की चर्चा प्रारम्भ होती है, जो दश गाथाओं में समाप्त होती है। इसके बाद अठारह गाथाओं में अजीवाधिकार है। जिसमें पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन पाँच अचेतन द्रव्यों का सामान्य वर्णन है। ये दोनों अधिकार तो सामान्य ही हैं / नियमसार की विशेषता तो तीसरे शुद्धभावाधिकार की प्रथम गाथा से आरंभ होती है, जिसमें जीवादि बाह्यतत्त्वों को हेय बताया गया है तथा कर्मोपाधिजनित गुरण-पर्यायों से भिन्न प्रात्मा को उपादेय कहा है। इसके बाद ४६वीं गाथा तक सभी प्रकार के परभावों व विभावभावों से आत्मा को भिन्न बताते हुए ५०वीं गाथा में प्राचार्य कहते हैं : "पुग्वत्तसयलभावा परदग्वं परसहावमिति हेयं / सगवव्यमुपादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा / / पूर्वोक्त सभी भाव परस्वभाव हैं, परद्रव्य हैं; इसलिए हेय हैं / अन्तस्तत्त्वरूप स्वद्रव्य ही उपादेय है।" इसके बाद सम्यग्दर्शन-ज्ञान का स्वरूप बताकर चारित्र का स्वरूप बताने की प्रतिज्ञा करते हैं और सर्वप्रथम व्यवहारचारित्राधिकार नामक चतुर्थ अधिकार में व्यवहारचारित्र का स्वरूप समझाते हैं; जिसमें पांच व्रतों, पाँच समितियों एवं तीन गुप्तियों का वर्णन है / तत्पश्चात् पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का निरूपण है /