________________ नियमसार ] [ 89 है तथा देहमात्र है परिग्रह जिनके - ऐसे पंचेन्द्रियजयी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित है। ऐसे इस भागवतशास्त्र नियमसार को जो निश्चय और व्यवहार नय के अविरोध से जानते हैं, वे महापुरुष समस्त अध्यात्मशास्त्रों के हृदय को जाननेवाले, परमानन्दरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, बाह्याभ्यन्तर चौबीस प्रकार के परिग्रह के प्रपंचों के त्यागी त्रिकाल निरुपाधिस्वरूप में निरत, निजकारणपरमात्मा के स्वरूप के श्रद्धानज्ञान-आचरणात्मक भेदोपचारकल्पना से निरपेक्ष स्वस्थ रत्नत्रय में परायण शब्दब्रह्म के फलरूप शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं।" निजशुद्धात्मस्वरूप के ज्ञान, श्रद्धान एवं ध्यान बिना चार गति और चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों के लिए अनन्त दुःखों से मुक्ति के लिये निजात्मा का ज्ञान, श्रद्धान एवं ध्यान ही एकमात्र नियम से करने योग्य कार्य है। निजात्मा के श्रद्धान, ज्ञान एवं ध्यानरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही नियम होने से नियमसार के प्रतिपाद्य विषय हैं। नियम के साथ 'सार' शब्द का प्रयोग विपरीताभिनिवेश के निषेध के लिए किया गया है। जैसा कि आचार्यदेव स्वयं लिखते हैं :"नियमेण य जंकज्जतं रिणयमं गाणदंसरणचरितं / विवरीयपरिहरत्यं भरिणदं खलु सारमिदि धयरणं // ' नियम से करने योग्य जो दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप कार्य हैं; वे ही नियम हैं। विपरीत अर्थात् मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र के परिहार के लिए नियम के साथ 'सार' शब्द का प्रयोग किया गया है।" / यद्यपि नियमसार का प्रतिपाद्य सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप नियम ही है, तथापि इसमें तत्संबंषित और भी अनेक विषय आ गये हैं, जिनका उल्लेख तात्पर्यवृत्तिकार ने इसप्रकार किया है :____"फिञ्चास्य स्खलु निखिलागमार्थसार्थप्रतिपादनसमर्थस्य नियमशब्दसंसूचितविशुद्धमोक्षमार्गस्य अंचितपंचास्तिफायपरिसनाथस्य संचितपंचाचारप्रपंचस्य षड्द्रव्यविचित्रस्य सप्ततत्वनवपदार्थगर्भी 1 नियमसार, गाथा 3