________________ 88] [ आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम इसमें सन्देह नहीं कि नियमसार नामक परमागम' की रचना दिगम्बर परम्परा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्पूर्णतः स्वान्तःसुखाय ही की है। जैसा कि उनके निम्नांकित कथन से स्पष्ट है :"णियभावरणाणिमित्तं मए कई रिणयमसारणामसुदं / रगच्चा जिगोवदेसं पुग्यावरदोसरिणम्मुक्कं // पूर्वापर दोषरहित जिनोपदेश को जानकर मैंने निजभावनानिमित्त से इस नियमसार नामक शास्त्र की रचना की है।" इस ग्रन्थ के संस्कृत टीकाकार मुनिराज श्री पमप्रभमलधारिदेव इसे भागवतशास्त्र कहते हैं तथा इसके अध्ययन का फल शाश्वतसुख की प्राप्ति बताते हुए कहते हैं : "भागवतं शास्त्रमिदं निर्वाणसुन्दरीसमुद्भवपरमवीतरागत्मकनिाबाधनिरंतरानंगपरमानन्दप्रवं निरतिशयनित्यशुद्ध निरंजननिजकारणपरमात्मभावनाकाररणं समस्तनयनिचांचितं पंचमगति हेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहेण निर्मितमिदं ये खलु निश्चयध्यवहारनयोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहवयवेदिनःपरमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिणःपरित्यक्तबाह्याभ्यन्तरचतुर्विशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरूपाधिस्वरूपनिरतनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानचरणात्मकभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्तः शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति / यह नियमसार नामक भागवतशास्त्र निर्वाणसुन्दरी से उत्पन्न, परमवीतरागात्मक, निराबाध, अनंग परमानन्द को निरन्तर देनेवाला है; निरतिशय, नित्य, शुद्ध, निरंजन, निजकारणपरमात्मा की भावना का कारण है; समस्तनयों के समूह से शोभित है; पंचमगति का हेतु 'नियमसार के टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ने अनेक स्थानों पर नियमसार फो परमागम कहा है / जैसे-छन्द 5,6 एवं गाथा 1 की टीका में / 2 नियमसार, गाथा 187 3 नियमसार गाथा 187 की तात्पर्यवृति टीका