________________ पंचम अध्याय नियमसार प्राचार्य भगवन्तों द्वारा शास्त्रों की रचना आत्मार्थीजनों के हितार्थ की जाती रही है। व्यक्तिविशेष के संबोधनार्थ भी अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है / स्वान्तःसुखाय या भक्तिवश भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गये हैं। यह नियमसार नामक परमागम न तो व्यक्तिविशेष के संबोधनार्थ ही लिखा गया है और न सामान्यरूप से आत्मार्थीजनों के हितार्थ इसका प्रणयन हुआ है, भक्ति भी इसका हेतु नहीं है। इस ग्रन्थाधिराज का प्रणयन आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने दैनिक पाठ के लिये किया था। इसमें जहां एक ओर परमवीतरागी विरक्त सन्त की अन्तरोन्मुखी पावन भावना का तरल प्रवाह है तो दूसरी ओर अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ का उद्दाम वेग भी है / यह अपने प्रकार की अनुपम बेजोड़ कृति है। यह ग्रन्थाधिराज तत्त्वोपदेशक एवं प्रशासक पट्टाचार्य कुन्दकुन्द की रचना नहीं; यह तो इन सबसे पूर्णत: विरक्त, परम परिणामिक भाव में ही अनुरक्त, वीतरागी सन्त, अन्तरोन्मुखी कुन्दकुन्द की कृति है। इसमें कुन्दकुन्द का अन्तरङ्ग व्यक्त हुआ है। उपदेश, भादेश, अनुशासन-प्रशासन कुन्दकुन्द की मजबूरी थी, जीवन नहीं। उनका हार्द नियमसार है। 'सन्तों का कुछ भी गुप्त नहीं होता' - इस रीति के कारण ही महाभाग्य से यह प्रारमार्थीजनों को उपलब्ध हो गया है। इसकी प्रतिपादन शैली अन्तरोन्मुखी भावनाप्रधान है। सद्भाग्य से इसे पद्मप्रभमलधारिदेव जैसे अन्तरोन्मुखी, भावनाप्रधान, परमवैरागी टोकाकार भी उपलब्ध हो गये हैं। जिन्होंने इस पर समरसी टीका एवं उसके बीच-बीच में वैराग्यरस से प्रोत-प्रोत छन्द लिखकर प्रात्मोन्मुखी आत्मार्थीजनों का अनन्त-अनन्त उपकार किया है।