________________ 84 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम प्रतः हे मोक्षार्थी जीवो ! कहीं भी किंचित् भी राग मत करो; क्योंकि ऐसा करने से ही वीतराग होकर भवसागर से पार हुमा जाता है।" इसी गाथा की टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं : "प्रलं विस्तरेण / स्वस्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारस्वेन शास्त्रतात्पर्यमूताय वीतरागत्वायेति / अधिक विस्तार करने से क्या लाभ है ? वह वीतरागता जयवंत वर्ते, जो साक्षात मोक्षमार्ग का सार होने से इस शास्त्र का मूल तात्पर्य है।" ___ इसी गाथा की टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा व्यवहाराभासी व निश्चयाभासी का जो मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है तथा जिसके आधार पर ही पण्डितप्रवर टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अध्याय में इनके स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है, वह आज मुमुक्षु समाज का अत्यधिक प्रिय विषय है एवं अनेक बार मूलतः पठनीय है। सन्ति में परम-आध्यात्मिक सन्त अमृतचन्द्राचार्य का अकर्तत्व सूचक निम्नलिखित छन्द भी दर्शनीय है :"स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वाख्याकृतेयं समयस्य शब्दैः। स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः // ' अपनी शक्ति से जिन्होंने वस्तु का तत्त्व भलीभांति कहा है, ऐसे उन शब्दों ने यह समयव्याख्या नामक टीका बनाई है; स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्राचार्य का इसमें किंचित् भी कार्य (कर्तव्य) नहीं है।" प्राचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण समस्त उत्तरकालीन आचार्य परम्परा ने किया है। पंचास्तिकाय को आधार बनाकर लिखे गये परवर्ती साहित्य में प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखित द्रव्यसंग्रह सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ है। द्रव्यसंग्रह के अधिक प्रचलित होने का कारण भी पंचास्तिकायसंग्रह की सम्पूर्ण विषयवस्तु को उसीरूप में अतिसंक्षेप में प्रस्तुत कर देने में समाहित है। ' समयव्याख्या, छन्द 8