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पंचास्तिकाय संग्रह ]
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पारमेश्वरी तीथ प्रवर्तना दोनों नयों के प्राधीन होने से इसके बाद साधन-साध्य के रूप में व्यवहार और निश्चय - दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग का निरूपण किया गया है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होने से मूलतः पठनीय है । पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय है, अनुचरणीय है । व्यवहारमोक्षमार्ग को साघनरूप से निरूपित करने पर भी उसके प्रति बार-बार सावधान किया गया है :
"अरहन्त सिद्धचेदियपवयरगगरगरणागभत्तिसंपष्णो । बंधवि पुष्णं बहुसो रग हु सो कम्मक्खयं कुरणदि ॥ जस्स हिवएणुमेतं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो । सोरण विजारगदि समयं सगस्स सव्धागमधरो वि ।।
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अरिहंत, सिद्ध, चैत्य (प्रतिमा), प्रवचन ( शास्त्र ), मुनिगरण और ज्ञान के प्रति भक्तिसम्पन्न जीव बहुत पुण्य बांधता है, परन्तु वह कर्म का क्षय नहीं करता ।
जिसके हृदय में परद्रव्य के प्रति अणुमात्र भी राग वर्तता है, भले ही वह सर्व श्रागमधर हो, तथापि स्वकीय समय को नहीं जानता ।” अधिक क्या कहें ? प्राचार्यदेव तो यहां तक कहते हैं कि :"सपयत्थं तित्थयरं श्रभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । दूरतरं णिव्वाणं संजमतबसंपउत्तस्स ॥
संयम-तप-युक्त होने पर भी नवपदार्थों तथा तीर्थंकर के प्रति जिसकी बुद्धि का झुकाव वर्तता है और सूत्रों के प्रति जिसे रुचि वर्तती है, उस जीव को निर्वारण दूरतर (विशेष दूर ) है ।"
अन्त में आचार्यदेव उपदेश देते हैं, आदेश देते हैं, सलाह देते हैं, प्रेरणा देते हुए कहते हैं :
" तम्हा रिगव्वुविकामो रागं सम्वत्थ कुरणवु मा किचि । सो तेरण वीदरागो भविप्रो भवसायरं तरदि ॥
" पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा १६६-१६७ पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा १७०
3 पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा १७२