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________________ ७० ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम जिसके शरीरादि के प्रति परमाणुमात्र भी मूर्छा हो, वह यदि सर्वागम का धारी हो तो भी वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता।" इसप्रकार हम देखते हैं कि इस अधिकार में आत्मज्ञान सहित आगमज्ञान के ही गीत गाये हैं। अन्त में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से सम्पन्न श्रमणों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं : समसत्तुबंधुवग्गो समसुहबुक्खो पसंसरिणवसमो। समलोटकंचरणो पुरण जोविदमरणे समो समयो ।' जिसे शत्रु और बंधु वर्ग समान हैं, सुख-दुःख समान हैं, प्रशंसानिन्दा समान हैं, मिट्टी का ढेला एवं स्वर्ण समान हैं एवं जीवन और मरण भी समान है, वही सच्चा श्रमण है।" इसी गाथा के आधार पर पंडित दौलतरामजी लिखते हैं :"अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-फाँच, निन्दन-थुतिकरन । अर्घावतारन प्रसिप्रहारन में सवा समता घरन ॥ गाथा २४५ से शुभोपयोगप्रज्ञापन अधिकार प्रारंभ होता है, जो २७०वीं गाथा तक चलता है। यद्यपिज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन में इस विषय से संबंधित शुभपरिणाम अधिकार आ चुका है, तथापि यहाँ भावलिंगी सन्तों के होनेवाले शुभोपयोग की दृष्टि से निरूपण है। यद्यपि यह शुभोपयोग भी प्रास्रव का ही कारण है, तथापि यह भावलिंगी सन्तों के भी पाया जाता है। ___इस अधिकार में मुख्यतः यही बताया है कि छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते रहनेवाले सच्चे भावलिंगी मुनिराजों की भूमिका में किसप्रकार का शुभ परिणाम संभव है और किसप्रकार का शुभ परिणाम संभव नहीं है । मुनिधर्म का सच्चा स्वरूप समझने के इच्छुक महानुभावों को इस प्रकरण का अध्ययन गहराई से करना चाहिए। 'प्रवचनसार, गाथा २४१ २ छहढाला, छठवीं ढाल, छन्द ६
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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