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प्रवचनसार ]
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आत्मानुभवी वीतरागी सन्तों के भी शुभोपयोग के सन्दर्भ में प्राचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोरण को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण के रूप में निम्नांकित गाथाएँ द्रष्टव्य हैं।
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"बंबरणरणमंसह अम्भुट्ठाखाणुगमरणपश्वित्ती । समणेसु समावरणश्रो ग रिंगबिदा रागचरियम्हि ॥'
श्रमणों के प्रति वंदन - नमस्कार सहित अभ्युत्थान और अनुगमन रूप विनीत प्रवृत्ति तथा उनका श्रम दूर करने रूप रागचर्या श्रमणों के लिए निन्दित नहीं है ।"
वेज्जावरचरिणमित्तं गिलाण गुरुबालबुड्ढसमरगाणं । लोगिगज संभाला रग रिंगविदा वा सुहोबजुदा ॥ "
शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त रोगी, गुरु, बाल या वृद्ध श्रमरणों की सेवा के निमित्त से शुद्धात्मपरिणतिशून्य शुभोपयुक्त लौकिक-जनों के साथ बातचीत करना निन्दित नहीं है, किन्तु अन्य निमित्त से लौकिक जनों से बातचीत करना निन्दित है ।"
उक्त दोनों ही गाथाओं में एक बात जोर देकर कही गई है कि अपने से बड़े शुद्धोपयोगी सन्तों की यथोचित विनय संबंधी शुभराग या उनकी वैयावृत्ति आदि के लिए लौकिकजनों से चर्चा भी निन्दित नहीं है । तात्पर्य यह है कि ये कार्य शुद्धोपयोगरूप धर्म के समान अभिनन्दनीय अर्थात् उपादेय तो नहीं, पर निन्दनीय भी नहीं है, क्षमा के योग्य अपराध हैं । वास्तविक धर्म तो शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म ही है, ये तो शुद्धोपयोग के सहचारी होने से व्यवहार धर्म कहे जाते हैं । ये संवर- निर्जरारूप नहीं, आस्रवरूप ही हैं ।
इनके अतिरिक्त गृहस्थोचित शुभराग तो मुनियों के लिए सर्वथा हेय ही है ।
प्रवचनसार, गाथा २४७ २ प्रवचनसार, गाथा २५३