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________________ प्रवचनसार ] [ ६६ इसके बाद २३२वीं गाथा से २४४वीं गाथा तक चलनेवाले मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार में सर्वाधिक बल श्रागमाभ्यास पर दिया गया है । अधिकार का आरंभ ही 'आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा' सूक्ति से हुआ है । 1 प्राचार्यदेव कहते हैं कि एकाग्रता के बिना श्रामण्य नहीं होता और एकाग्रता उसे ही होती है, जिसने आगम के अभ्यास द्वारा पदार्थों का निश्चय किया है, अत: प्रागम का अभ्यास ही सर्वप्रथम कर्तव्य है । साधु को प्रागमचक्षु कहा गया है। श्रागमरूपी चक्षु के उपयोग बिना स्व-पर-भेदविज्ञान संभव नहीं । गुण पर्याय सहित सम्पूर्ण पदार्थ आगम से ही जाने जाते हैं । श्रागमानुसार दृष्टि से सम्पन्न पुरुष ही संयमी होते हैं । इसी अधिकार में वह महत्त्वपूर्ण गाथा भी आती है, जिसका भावानुवाद पंडित दौलतरामजी ने छहढाला की निम्नांकित पंक्तियों में किया है : "कोटि जन्म तप तपें ज्ञान विन कर्म भरें जे । ज्ञानी के छिन माँहि त्रिगुप्ति तें सहज टरें ते ।।' वह मूल गाथा इसप्रकार है : : "जं अण्णारणी कम्मं खवेदि भवसयस हस्तकोशीहि । तं गाणी तिहि गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ जो कर्म अज्ञानीजन लक्ष-कोटि (दश खरब) भवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार से गुप्त होने से उच्छ्वास मात्र में खपा देता है ।" यद्यपि इस अधिकार में श्रागमज्ञान की अद्भुत महिमा गाई है, तथापि श्रात्मज्ञानशून्य आगमज्ञान को निरर्थक भी बताया है; जो इस प्रकार है : परमाणुपमाणं वा मुच्छा बेहाविएसु जस्स पुगो । विज्जवि जदि सो सिद्धि ग लहदि सव्वागमधरो वि ॥ ३ १ छहढाला, चतुर्थ ढाल, छन्द ५ २ प्रवचनसार, गाथा २३८ 3 प्रवचनसार, गाथा २३६
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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