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________________ ६८ ] [प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम जीव मरे चाहे न मरे, पर प्रयत्नाचार प्रवृत्ति वाले के हिंसा होती ही है । यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले के मात्र बाह्य हिंसा से बंध नहीं होता।" हवविवरण हववि बंधो मवम्हि जोवेऽध कायचेट्ठम्हि । बंधो धुवमुवीवो इवि समरणा छड्डिया सव्वं ।' कायचेष्टापूर्वक जीवों के मरने पर बंध होता है या नहीं होता है, किन्तु उपधि (परिग्रह) से निश्चित बंध होता है। यही कारण है कि श्रमण सर्व परिग्रह के त्यागी होते हैं ।" इसके बाद उपधित्याग के सन्दर्भ में विस्तार से चर्चा की गई है। इसी के अन्तर्गत युक्ताहार-विहार एवं उत्सर्ग मार्ग व अपवाद मार्ग की भी चर्चा हुई है । यह सम्पूर्ण प्रकरण मूलतः पठनीय है । अन्त में उत्सर्ग मार्ग एवं अपवाद मार्ग की मैत्री बताते हुए आचार्यदेव लिखते हैं : "बालो वा वुड्ढो वा समभिहवो या पुरषो गिलापो था। चरियं धरतु सजोग्गं मूलच्छेवो जषा ण हववि ॥' बाल, वृद्ध, थके हुए एवं रोगग्रस्त मुनिराज शुखोपयोगरूप मूलधर्म का उच्छेद न हो- इस बात का ध्यान रखकर उत्सर्ग या अपवाद जो भी मार्ग पर चलना संभव हो, सहज हो, उसी पर चले।" तात्पर्य यह है कि वे उत्सर्ग मार्ग का हठ न करें। क्षेत्र-काल एवं अपने देहादिक की स्थिति देखकर आचरण करें, पर इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि शुद्धोपयोगरूप मूलधर्म का उच्छेद न हो जावे । इसप्रकार हम देखते हैं कि इस अधिकार में जहां एक मोर शिथिलाचार के विरुद्ध चेतावनी दी गई है, वहीं अनावश्यक कठोर आचरण के विरुद्ध भी सावधान किया है। १ प्रवचनसार, गाथा २१६ २ प्रवचनसार, गाथा २३०
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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