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प्रवचनसार ]
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इस बात की पुष्टि इस अधिकार की मंगलाचरण की गाथा से भी होती है | मंगलाचरण की गाथा इसप्रकार है :
"एवं परणमिय सिद्धे जिरगवरबसहे पुणो पुणो समणे । परिवज्जड सामण्णं जदि इच्छवि दुक्खपरिमोक्खं ॥ '
यदि दुखों से मुक्त होना चाहते हो तो पूर्वोक्त प्रकार से सिद्धों, जिनवरवृषभ अरहंतों एवं श्रमणों को नमस्कार कर श्रमणपना अंगीकार करो। "
इसके तत्काल बाद वे श्रामण्य अंगीकार करने की विधि का व्याख्यान करते हैं । इससे सिद्ध होता है कि वे गृहस्थ शिष्यों को श्रामण्य अंगीकार कराने के उद्देश्य से ही इस अधिकार की रचना करते हैं ।
इस चरणानुयोगसूचक चूलिका में चार अधिकार हैं :
(१) आचरणप्रज्ञापन (३) शुभोपयोग प्रज्ञापन
(२) मोक्षमार्गप्रज्ञापन (४) पंचरत्नप्रज्ञापन
गाथा २०१ से २३१ तक चलनेवाले आचरणप्रज्ञापन नामक इस अधिकार में सर्वप्रथम श्रामण्य ( मुनिधर्म) अंगीकार करने की विधि का उल्लेख है, जो मूलतः पठनीय है। इसके पश्चात् श्रमरणों के अट्ठाईस मूलगुरणों का स्वरूप बताते हुए श्रामण्य के छेद पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है ।
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छेद दो प्रकार से होता है :- अंतरंग छेद एवं बहिरंग छेद । शुद्धोपयोग का हनन होना अंतरंग छेद है और अपने निमित्त से दूसरों के प्रारणों का विच्छेद होना बहिरंग छेद है ।
इस सन्दर्भ में निम्नांकित गाथाएँ विशेष ध्यान देने योग्य हैं :
"मरवु व जियवु व नोवो श्रयदाचारस्स रिपच्छिदा हिंसा । बंधो हिंसा मेत्तेण
पयदस्स
रास्थि
समिदस्स ॥
प्रवचनसार, गाथा २०१
प्रवचनसार, गाथा २१७