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[ भाचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम
पण्डितप्रवर प्रशाधरजी ( १३वीं सदी) एवं आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ( १६वीं सदी) के ग्रन्थों के अध्ययन से भी पता चलता है कि उन्होंने समयसार का मात्र वांचन ही नहीं किया था, अपितु गहरा अध्ययन भी किया था । क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी तो प्रतिदिन समयसार का पाठ करते थे और उन्हें सम्पूर्ण आत्मख्याति कण्ठस्थ थी । जैनेन्द्र वर्णी का भी समयसार का गहरा अध्ययन था । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने तो भरी सभा में १६ बार समयसार पर प्रवचन किये थे, जो प्रवचन रत्नाकर नाम से प्रकाशित भी हो चुके हैं।
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ध्यान रहे इन सभी आत्मार्थियों में कोई भी मुनिराज नहीं था, सभी श्रावक ही थे । इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि आचार की दृष्टि से धर्म दो प्रकार का माना गया है :- (१) मुनिधर्म और (२) गृहस्थधर्म । श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ गृहस्थधर्म के ही भेद हैं; श्रतः क्षुल्लक भी गृहस्थों में ही आते हैं ।
सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि जो लोग समयसार के स्वाध्याय का निषेध करते हैं, वे स्वयं गृहस्थ होकर भी इसका स्वाध्याय करते देखे जाते हैं। मैं उनसे विनम्रतापूर्वक एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि आपने स्वयं समयसार का स्वाध्याय किया है या नहीं ? यदि हाँ तो फिर आप अन्य गृहस्थों को समयसार पढ़ने से क्यों रोकते हैं ? और यदि आपने समयसार का स्वाध्याय किया ही नहीं है तो फिर यह जाने बिना कि उसमें क्या है ? - उसके अध्ययन का निषेध कैसे कर सकते हैं ?
भाई ! प्राचार्यदेव ने यह ग्रन्थाधिराज प्रज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के अज्ञान और मिथ्यात्व के नाश के लिए ही बनाया है, जैसा कि इसमें समागत अनेक उल्लेखों से स्पष्ट है । समयसार की ३८वीं गाथा की टीका में तो साफ-साफ लिखा है कि अत्यन्त अप्रतिबुद्ध आत्मविमूढ़ के लिए ही यह बात है ।
सम्यग्दर्शन की मुख्यता से लिखे गये इस परमागम को मुख्यरूप से तो मिथ्यादृष्टियों को ही पढ़ना चाहिए; क्योंकि सम्यग्दर्शन की