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________________ समयसार ] परिशिष्ट के आरंभ में ही प्राचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं : "प्रत्र स्याद्वावशुद्ध यर्थं वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः। उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते ॥' यहाँ स्याद्वाद की शुद्धि के लिए वस्तुतत्त्व की व्यवस्था और उपाय-उपेयभाव का जरा फिर से विचार करते हैं।" इसप्रकार इस ग्रन्थाधिराज समयसार में नवतत्त्वों के माध्यम से मूल प्रयोजनभूत उस शुद्धात्मवस्तु का प्ररूपण है, जिसके आश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के इसका स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। कतिपय मनीषी आज यह भी कहते पाये जाते हैं कि समयसार तो मात्र मुनिराजों के अध्ययन की वस्तु है, गृहस्थों (श्रावकों) को इसका अध्ययन नहीं करना चाहिए। वे मात्र कहते ही नहीं हैं, अपितु उन्होंने इसके पठन-पाठन के निषेध में अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा रखी है। उन सभी से हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे पूर्वाग्रह त्यागकर एक बार अपनी इस मान्यता पर गहराई से विचार करें। यह ग्रन्थाधिराज समयसार शताब्दियों से गृहस्थ विद्वानों द्वारा पढ़ा-पढ़ाया जाता रहा है और प्राज भी निरन्तर पठन-पाठन में है। विक्रम की सोलहवीं सदी में पाण्डे राजमलजी ने समयसार कलशों पर बालबोधनी टीका लिखी थी, जिसके आधार पर सत्रहवीं सदी में कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने समयसार नाटक रचा। १९वीं सदी में पण्डितप्रवर जयचन्दजी छाबड़ा ने इसकी भाषाटीका लिखी। इसीप्रकार ब्र० शीतलप्रसादजी ने भी इसपर टीका लिखी है । क्षुल्लक मनोहरलालजी वर्णी की सप्तदशांगी टीका भी प्रकाशित हो चुकी है। ब्र० पण्डित जगन्मोहनलालजी शास्त्री का अध्यात्म-अमृत-कलश भी समयसार कलशों की ही टीका है। क्या इन सब विद्वानों ने समयसार का स्वाध्याय किये बिना ही ये टीकायें और अनुवाद किये होंगे? 'मात्मख्याति, कलश २४७
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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