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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम
स्वभावानुसार स्वतंत्रता से परिणमित होते हैं । इसप्रकार स्वभाव से आत्मा परद्रव्यों के प्रति अत्यन्त उदासीन होने पर भी अज्ञान अवस्था में उन्हें अच्छे-बुरे जानकर राग-द्वेष करता है ।
शास्त्र में ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र कुछ जानते नहीं हैं, इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है - ऐसा जिनदेव कहते हैं । इसीप्रकार शब्द, रूप, गंघ, रस, स्पर्श, कर्म, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल, आकाश एवं अध्यवसान में भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि ये सब कुछ जानते नहीं हैं, अतः ज्ञान अन्य है और ये सब अन्य हैं । इसप्रकार सभी परपदार्थों एवं अध्यवसान भावों से भेदविज्ञान कराया गया है ।
अन्त में आचार्यदेव कहते हैं कि बहुत से लोग लिंग ( भेष) को ही मोक्षमार्ग मानते हैं, किन्तु निश्चय से मोक्षमागं तो सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्र ही है - ऐसा जिनदेव कहते हैं। इसलिए हे भव्यजनो ! अपने आत्मा को श्रात्मा की आराधनारूप सम्यग्दर्शन - ज्ञान-चारित्रमय मोक्षमार्ग में लगाओ, अपने चित्त को अन्यत्र मत भटकाओ ।
अत्यन्त करुणा भरे शब्दों में आचार्यदेव कहते हैं :"मोक्खपहे प्रमाणं ठवेहि तं चैव भाहि तं चेय । तत्येव विहर च्चिं मा विहरसु अण्गवच्धेसु ॥'
आत्मन् ! तू स्वयं को निजात्मा के अनुभवरूप मोक्षमार्ग में स्थापित कर, निजात्मा का ही ध्यान घर, निजात्मा में ही चेत, निजात्मा का ही अनुभव कर एवं निजात्मा के अनुभवरूप मोक्षमार्ग में ही नित्य विहार कर; अन्य द्रव्यों में विहार मत कर, उपयोग को अन्यत्र मत भटका ।"
समयसार शास्त्र का यही सार है, यही शास्त्र - तात्पर्य है ।
इसप्रकार आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार ४१५ गाथाओं में आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार समाप्त हो जाता है । इसके उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र प्रात्मख्याति टीका के परिशिष्ट के रूप में अनेकांतस्याद्वाद, उपाय - उपेय भाव एवं ज्ञानमात्र भगवान श्रात्मा की ४७ शक्तियों का बड़ा ही मार्मिक निरूपण करते हैं, जो मलतः पठनीय है।
समयसार, गाथा ४१२
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