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________________ समयसार ] [४९ मात्मा भलीभांति जानते हैं कि मैं तो ज्ञान-दर्शनस्वभावी मात्मा ही हूँ, शेष सभी भाव मुझसे भिन्न भाव हैं। जिसप्रकार लोक में अपराधी व्यक्ति निरन्तर सशंक रहता है और निरपराधी व्यक्ति को पूर्ण निःशंकता रहती है, उसीप्रकार प्रात्मा की आराधना करनेवाले निरपराधी प्रात्मा को कर्मबन्धन की शंका नहीं होती। यही सार है मोक्षाधिकार का । अब सर्वविशुवज्ञान अधिकार में कहते हैं कि जिसप्रकार प्रांख परपदार्थों को मात्र देखती ही है, उन्हें करती या भोगती नहीं; उसीप्रकार ज्ञान भी पुण्य-पापरूप अनेक कमों को, उनके फल को, उनके बंध को, निर्जरा व मोक्ष को जानता ही है, करता नहीं। "नास्ति सर्वोऽपि संबंधः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः" प्राचार्य अमृतचन्द्र की इस उक्ति के अनुसार जब भगवान प्रात्मा का परद्रव्य के साथ कोई भी संबंध नहीं है तो फिर वह परपदार्थों का कर्ता-भोक्ता कैसे हो सकता है ? एक द्रव्य को दूसरे पदार्थों का कर्ता-भोक्ता कहना मात्र व्यवहार का ही कथन है, निश्चय से विचार करें तो दो द्रव्यों के बीच कर्ता-कर्मभाव ही नहीं है । कहा भी है : "व्यावहारिकदृर्शव केवलं कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते। निश्चयेन यदि वस्तु चित्यते कर्तृ कर्मच सदेकमिष्यते ॥ केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न जाने जाते हैं, यदि निश्चय से वस्तु का विचार किया जाये तो कर्ता और कर्म सदा एक ही माने जाते हैं।" स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दादिरूप परिणमित पुद्गल आत्मा से यह नहीं कहते कि 'तुम हमें जानो' पोर प्रात्मा भी पाने स्थान को छोड़कर उन्हें जानने को कहीं नहीं जाता; दोनों अपने-अपने 'मात्मख्याति, कलश २०० २प्रात्मख्याति, कलश २१०
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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