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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम "कर्मजाल जोग हिंसा भोग सौ नबंध पे,
तथापि ग्याता उहिमी बखान्यो जिनन में। ग्यानविष्टि वेत विर्ष-भौगनि सौं हेत वोऊ,
क्रिया एक खेत यों तो धन नाहि जैन मैं॥ उदेवल उहिम गह 4 फल को न पहे,
निरवं वसा न हो हिरदे के नैन मैं॥ पालस निरुहिम की भूमिका मिष्यात माहित
___ जहां न संभार जीव मोह नोंद सैन मैं॥" संक्षेप में बंधाधिकार की विषयवस्तु यही है । अब मोक्षाधिकार में कहते हैं कि जिसप्रकार बंधनों में जकड़ा हुआ पुरुष बंधन का विचार करते रहने से बंधन से मुक्त नहीं होता, अपितु बंधनों को छेदकर बंधनों से मुक्त होता है; उसीप्रकार कर्मबन्धन का विचार करते रहने मात्र से कोई प्रात्मा कर्मबन्धन से मुक्त नहीं होता, अपितु वह कर्मबन्धन को छेदकर मुक्ति प्राप्त करता है । तात्पर्य यह है कि लोमात्मा बंध और आत्मा का स्वभाव जानकर बंध से विरक्त होते हैं, वे ही कर्मबन्धनों से मुक्त होते हैं।
बंध और आत्मा के बीच भेद करने का काम प्रज्ञारूपी छैनी से होता है । कहा भी गया है :
"जैसे छनी लोह को, कर एक सौ दोइ ।
जड़ चेतन को मित्रता, त्यों सुबुद्धि सौ होइ॥" मात्मा और बंध के बीच प्रज्ञारूपी छनी को डालकर जो मात्मा उन्हें भिन्न-भिन्न पहिचान लेते हैं, वे बंध को छेदकर शुद्ध प्रात्मा को ग्रहण कर लेते हैं । जिस प्रज्ञा से बंध से भिन्न निज आत्मा को जानते हैं, उसी प्रज्ञा से बंध से भिन्न निज प्रात्मा को ग्रहण भी करते हैं । ज्ञानी
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' समयसार नाटक, बंषहार, छन्द ६ २ समयसार नाठक, मोक्षद्वार, छन्द ४