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________________ समयसार ] [ ४७ अनुसार सुखी-दु:खी होते हैं । जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के आयु कर्म या साता-प्रसाता कर्म को ले-दे नहीं सकता तो फिर वह उनके जीवन-मरण और सुख-दुःख का उत्तरदायी भी कैसे हो सकता है ? हां, यह बात अवश्य है कि प्रत्येक जीव दूसरे जीनों को मारनेबचाने एवं सुखी-दुःखो करने के भाव (अध्यवसान) अवश्य कर सकता है और अपने उन भावों के कारण कर्मबंधन को भी प्राप्त हो सकता है। इसीप्रकार झूठ बोलने, चोरी करने, कुशील सेवन करने एवं परिग्रह जोड़ने के संबंध में भी समझना चाहिए। उक्त संदर्भ में विस्तृत चर्चा करने के उपरान्त आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं : "प्रभवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ । एसो बंषसमासो जीवाणं पिच्छययस्स ॥' वत्थु पडच्च जं पुरण प्रभवसारणं तु होदि जीवाणं । ण य वत्थबो दु बंधो अज्झवसाणेण बंघोत्थि ॥ बंध के सन्दर्भ में निश्चयनय की दो टूक बात यह है कि जीवों को चाहे मारो चाहे न मारो, कर्मबंध अध्यवसान से ही होता है । यद्यपि यह बात भी सत्य है कि अध्यवसान भाव वस्तु के अवलम्बनपूर्वक ही होते हैं, तथापि बंध वस्तु से नहीं, अध्यवसान भावों से ही होता है।" यद्यपि यह बात सत्य है कि कर्मजाल, योग, हिंसा और भोगक्रिया के कारण बंध नहीं होता, तथापि सम्यग्दृष्टी ज्ञानी धर्मात्मा के अनर्गल प्रवृत्ति नहीं होती और न होनी ही चाहिए, क्योंकि पुरुषार्थहीनता और भोगों में लीनता मिथ्यात्व की भूमिका में ही होते हैं । इस बात को समयसार नाटक में अत्यन्त सशक्त शब्दों में इसप्रकार व्यक्त किया है : . समयसार, गाथा २६२ २ समयसार, गाथा २६५
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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