SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय समयसार यदि आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जिन - श्राचार्य परम्परा में शिरोमणि हैं तो शुद्धात्मा का प्रतिपादक उनका यह ग्रन्थाघिराज समयसार सम्पूर्ण जिन-वाङ्गमय का शिरमौर है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने इसके लिए “इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं' अर्थात् यह जगत का अद्वितीय अक्षय चक्षु है" - ऐसा कहा है, तथा इसकी महिमा " न खलु समयसारादुत्तरं किचिदस्ति - समयसार से महान इस जगत में कुछ भी नहीं हैं ' - कहकर गाई है । आचार्य 'कुन्दकुन्द स्वयं इसकी अन्तिम गाथा का फल बताते हुए कहते हैं : : इसके अध्ययन "जो समयपाहुडमिगं पढिवणं श्रत्थतच्चदो खादुं । प्रत्थे ठाही चेवा सो होही उत्तमं सोक्खं ॥ ४१५ ॥ जो आत्मा इस समयसार नामक शास्त्र को पढ़कर, इसमें प्रतिपादित आत्मवस्तु को अर्थ व तत्त्व से जानकर, उस आत्मवस्तु में स्थित होता है, अपने को स्थापित करता है. वह आत्मा उत्तम सुख अर्थात् अतीन्द्रिय- अनन्त प्रानन्द को प्राप्त करता है ।" १ श्रात्मख्याति, कलश २४५ २ आत्मख्याति, कलश २४४ प्राचार्य जयसेन के अनुसार प्राचार्य कुन्दकुन्द ने संक्षेपरुचि वाले शिष्यों के लिए पंचास्तिकाय, मध्यमरुचि वाले शिष्यों के लिए प्रवचनसार और विस्ताररुचि वाले शिष्यों के लिए इस ग्रन्थाधिराज समयसार की रचना की है। इस बात का उल्लेख उक्त ग्रन्थों पर उनके द्वारा लिखी गई तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाओं के आरम्भ में कर दिया गया है ।
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy