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[ आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम
इस ग्रन्थाधिराज पर आद्योपान्त १६ वार सभा में व्याख्यान कर इस युग में इसे जन-जन की वस्तु बना देनेवाले आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी कहा करते थे कि "यह समयसार शास्त्र आगमों का भी आगम है, लाखों शास्त्रों का सार इसमें है । यह जैनशासन का स्तंभ है, साधकों की कामधेनु है, कल्पवृक्ष है । इसको हर गाथा छठवें सातवें गुणस्थान में झूलते हुए महामुनि के आत्मानुभव में से निकली हुई है ।'
इस ग्रन्थाधिराज का मूल प्रतिपाद्य नवतत्त्वों के निरूपण के माध्यम से नवतत्त्वों में छुपी हुई परमशुद्ध निश्चयनय की विषयभूत वह आत्मज्योति है, जिसके प्राश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्र की प्राप्ति होती है ।
प्राचार्यदेव पूर्वरंग में ही कहते हैं कि मैं अपने सम्पूर्ण वैभव से उस एकत्व - विभक्त प्रात्मा का दिग्दर्शन करूँगा, जो न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है, न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है, मात्र अभेद - अखण्ड एक ज्ञायकभाव रूप है, परमशुद्ध है । परमध्यान का ध्येय, एकमात्र श्रद्धेय वह भगवान आत्मा न तो कर्मों से बद्ध ही है और न कोई परपदार्थ उसे स्पर्श ही कर सकता है । वह ध्रुवतत्त्व पर से पूर्णतः असंयुक्त, अपने में ही सम्पूर्णतः नियत, अपने से अनन्य एवं समस्त विशेषों से रहित है ।
तात्पर्य यह है कि पर से भिन्न और अपने से अभिन्न इस भगवान आत्मा में प्रदेशभेद, गुणभेद एवं पर्यायभेद का भी प्रभाव है । भगवान आत्मा के प्रभेद - अखण्ड इस परमभाव को ग्रहरण करनेवाला नय ही शुद्धनय है और यही भूतार्थ है, सत्यार्थ है, शेष सभी व्यवहारनय अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । जो व्यक्ति इस शुद्धाय के विषयभूत भगवान आत्मा को जानता है, वह समस्त जिनशासन का ज्ञाता है; क्योंकि समस्त जिनशासन का प्रतिपाद्य एक शुद्धात्मा ही है, इसके ही आश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है । मोक्षार्थियों के द्वारा एकमात्र यही आराध्य है, यही उपास्य है; इसकी आराधना-उपासना का नाम ही सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र है ।