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________________ ३२ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम नियमसार पर परमवैरागी मुनिराज श्री पद्मप्रभमलघारिदेव ने विक्रम की बारहवीं सदी में संस्कृत भाषा में 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका लिखी, जो वैराग्यभाव एवं शान्तरस से सराबोर है, भिन्न प्रकार की अद्भुत टीका है। अष्टपाहुड के प्रारंभिक छह पाहुडों पर विक्रम की सोलहवीं सदी में लिखी गई भट्टारक श्रुतसागरसूरि की संस्कृत टीका प्राप्त होती है, जो षट्पाहुड नाम से प्रकाशित हुई । षट्पाहुड कोई स्वतन्त्र कृति नहीं है, अपितु अष्टपाहुड के आरंभिक छह पाहुड ही षट्पाहुड नाम से जाने जाते हैं। समयसार की प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत आत्मख्याति में समागत कलशों (छन्दों) पर पाण्डे राजमलजी ने विक्रम सं० १६५३ में लोक भाषा ढढारी में एक बालबोधनी टीका लिखी, जो कलशों के गूढ़ रहस्य खोलने में अद्भुत है । उससे प्रेरणा पाकर और बहुत कुछ उसे ही प्राधार बनाकर कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने विक्रम सं० १६९३ में समयसार नाटक नामक ग्रन्थ की पद्यमय रचना की है, जो आज भी अध्यात्म प्रेमियों का कण्ठहार है । इसके बाद पंडितप्रवर जयचंदजी छाबड़ा ने विक्रम सं० १८६४ में आत्मख्याति सहित समयसार की भाषा टीका बनाई, जो आज भी सर्वाधिक पढ़ी जाती है। अष्टपाहुड की भी जयचंदजी छाबड़ा कृत भाषा टीका उपलब्ध है। अष्टपाहुड का स्वाध्याय भी आज उसी के आधार पर किया जाता है। इसीप्रकार तत्त्वप्रदीपिका सहित प्रवचनसार पर पाण्डे हेमराजजी की भाषा टीका तथा कविवर वृन्दावनदासजी एवं महाकवि गोदी भावशा छन्दानुवाद भी उपलब्ध है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का सच्चा परिचय तो उनके ग्रन्थों में प्रतिपादित वह विषयवस्तु है, जिसे जानकर जैनदर्शन के हार्द को भलीभांति समझा जा सकता है। अतः उनके द्वारा रचित पंच परमागमों में प्रतिपादित विषयवस्तु का संक्षिप्त सार दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है।
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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