________________ [ कुन्दकुन्द शतक मग्गो मग्गफलं ति य दविहंजिणसासणे समक्खादं / मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्याणं / / जैन शासन में कहा है मार्ग एवं मार्गफल / है मार्ग मोक्ष-उपाय एवं मोक्ष ही है मार्गफल / / जिनशासन में मार्ग और मार्गफल-ऐसे दो प्रकार कहे गये हैं। उनमें मोक्ष के उपाय को मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण (मोक्ष) है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता मोक्ष का मार्ग है। तथा इनकी पूर्णता से जो अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं अनन्तवीर्य तथा अव्याबाध आदि गुण प्रगट होते हैं; वही मोक्ष है। ( 94 ) णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी / तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो।। है जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही / अतएव वर्जित वाद है निज-पर समय के साथ भी।। जीव नाना प्रकार के हैं, कर्म नाना प्रकार के हैं और लब्धियाँ भी नाना प्रकार की हैं। अतः स्वमत और परमतवालों के साथ वचनविवाद उचित नहीं है, निषेध योग्य है। किसी से वाद-विवाद करना आत्मार्थी का काम नहीं है। ( 95 ) लणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते / तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्ति / / ज्यों निधि पाकर निज वतन में गुप्त रह जन भोगते / त्यों ज्ञानिजन भी ज्ञाननिधि परसंग तज के भोगते।। जिसप्रकार कोई व्यक्ति निधि को पाकर अपने वतन में गुप्तरूपसे रहकर उसके फल को भोगता है, उसीप्रकार ज्ञानी भी जगतजनों से दूर रहकर-गुप्त रहकर ज्ञाननिधि को भोगते हैं। 94. नियमसार, गाथा 156 93. नियमसार, गाथा 2 95. नियनसार, गाथा 157