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________________ कुन्दकुन्द शतक] ( 90 ) सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं / जं इन्दिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।। इन्द्रिसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है / है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है।। इन्द्रियों से भोगा जाने वाला सुख पराधीन है, बाधासहित है, विच्छिन्न है,बंध का कारण है, विषम है; अतः उसे दुःख ही जानो। तात्पर्य यह है कि पुण्योदय से प्राप्त होने वाला सुख, दुःख ही है। (91) सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा / अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियमं हवे .णियमा।। शुभ-अशुभ रचना वचन वा रागादिभाव निवारिके / जो करें आतम ध्यान नर उनके नियम से नियम है।। शुभाशुभ वचन रचना और रागादिभावों का निवारण करके जो आत्मा अपने आत्मा को ध्याता है, उसे नियम से नियम होता है। तात्पर्य यह है कि शुभाशुभभाव का अभाव कर अपने आत्मा का ध्यान करना ही धर्म है, नियम ( 92 ) णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरितं / विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं / / सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित ही है 'नियम' जानो नियम से / विपरीत का परिहार होता 'सार' इस शुभ वचन से।। नियम से करने योग्य जो कार्य हो, उसे नियम कहते हैं। आत्महित की दृष्टि से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही करने योग्य कार्य हैं; अतः वे ही नियम हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र की निवृत्ति के लिए 'नियम' के साथ 'सार' शब्द जोड़ा गया है। अतः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही नियमसार है। 91. नियमसार, गाथा 120 90. प्रवचनसार, गाथा 76 92. नियममार, गाथा 3
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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