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________________ 14 [ कुन्दकुन्द शतक ( 87 ) सोवणियं पिणियलंबंधदि कालायसंपिजह पुरिसं / बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कवं कम्मं / / ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती / इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती।। जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसीप्रकार सोने की बेड़ी भी बाँधती ही है। इसीप्रकार जैसे अशुभकर्म (पाप) जीव को बाँधता है, वैसे ही शुभकर्म (पुण्य) भी जीव को बाँधता ही है। बंधन में डालने की अपेक्षा पुण्य-पाप दोनों कर्म समान ही हैं। (88 ) तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व संसग्गं / साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण / / दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो / दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो।। सचेत करते हुए आचार्य कहते हैं कि पुण्य-पाप इन दोनों कुशीलों के साथ राग मत करो, संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है। ( 89 ) ण हि मण्णदिजो एवंणत्थि विसेसोत्ति पुण्णपावाणं / हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो।। पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न ममने बात ये / संसार-सागर में भ्रमे मद-मोह से आच्छन्न वे।। इसप्रकार जो व्यक्ति 'पुण्य और पाप में कोई अन्तर नहीं है'-ऐसा नहीं मानता है अर्थात् उन्हें समानरूप से हेय नहीं मानता है, वह मोह से आच्छन्न प्राणी अपार घोर संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करता है। 88. समयसार, गाथा 147 87. समयसार, गाथा 146 89. प्रवचनसार, गाथा 77
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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