________________ कुन्दकुन्द शतक ] ( 84 ) रत्तो बन्धदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो / एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।। विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधे कर्म को / जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो।। रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य-सम्पन्न जीव कर्मों से छूटता है-ऐसा जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है; अतःहे भव्यजीवो !शुभाशुभ कर्मों में रागमत करो। ( 85 ) परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छिंति / संसारगमणहे, पि मोक्खहे, अजाणंता।। परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते / अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते।। जो जीव वीतरागभाव रूप मोक्षमार्ग को नहीं जानते हैं तथा संसार-परिभ्रमण का हेतु होने पर भी अज्ञान से पुण्य को मोक्षमार्ग मानकर चाहते हैं, वे जीव परमार्थ से बाहर हैं। तात्पर्य यह है कि उन्हें कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। ( 86 ) कम्ममसुहं कसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं / कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि।। सुशील है शुभकर्म और अशुभ करम कशील है / संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं?।। अज्ञानीजनों को सम्बोधित करते हुए आचार्य कहते हैं कि तुम ऐसा जानते हो कि शुभकर्म सुशील है और अशुभकर्म कुशील है, पर जोशुभाशुभ कर्म संसार में प्रवेश कराते हैं, उनमें से कोई भी कर्म सुशील कैसे हो सकता है? तात्पर्य यह है कि शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म कुशील ही हैं, कोई भी कर्म सुशील नहीं होता। 84. समयसार, गाथा 150 86. समयसार, गाथा 145 85. समयसार, गाथा 154