SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ कुन्दकुन्द शतक ( 81 ) पव्यज्जहीणगहिणं हं सीसम्मि यदे बहुसो / आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो / हीन विनयाचार से वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं।। जो भेषधारी दीक्षा रहित गृहस्थों और शिष्यों में बहुत स्नेह रखता है और मुनि के योग्य आचरण तथा विनय से विहीन होता है; वह श्रमण नहीं, पशु है, अज्ञानी है। अतः न तो गृहस्थों में स्नेह रखना चाहिए और न दीक्षित शिष्यवर्ग में ही। ( 82 ) दसणणाणचरिते महिलावग्गम्मि देवि वीसट्टो / पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो।। पार्श्वस्थ से भी हीन जो विश्वस्त महिला वर्ग में / रत ज्ञान दर्शन चरण दें वे नहीं पथ अपवर्ग में।। जो साधु वेष धारण करके महिलाओं में विश्वास उत्पन्न करके उन्हें दर्शन-ज्ञान-चारित्र देता है, उन्हें पढ़ाता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है-इसप्रकार उनमें प्रवर्तता है; वह तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, प्रकट भाव से विनष्ट है, श्रमण नहीं है। धम्मेण होइ लिगं ण लिंगमेत्तेण धम्मसंपत्ती / जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो।। धर्म से हो लिंग केवल लिंग से न धर्म हो / समभाव को पहिचानिये द्रवलिंग से क्या कार्य हो?।। धर्मसहित तो लिंग होता है, परन्तु लिंगमात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए हे भव्यजीव ! तू भावरूप धर्म को जान, केवल लिग से तेरा क्या कार्य सिद्ध होता है? तात्पर्य यह है कि अंतरंग निर्मल परिणामों सहित लिंग धारण करने से ही धर्म की प्राप्ति होती है। 81. अष्टपाहुड : लिंगपाहुड, गाथा 2 83. अष्टपाहुड : लिगपाहुड, गाथा 20 82. अष्टपाहुड : लिंगपाहुड, गाथा 18
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy