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________________ कुन्दकुन्द शतक ] 145 ( 78 ) जहजायरुवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु / जइ लेइ अप्पवयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोद।। जन्मते शिशुवत अकिंचन नहीं तिलतुष हाथ में / किंचित् परिग्रह साथ हो तो श्रमण जाँय निगोद में।। जैसा बालक जन्मता है, साधु का रूप वैसा ही नग्न होता है। उसके तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता। यदि कोई साधु थोड़ा-बहुत भी परिग्रह ग्रहण करता है तो वह निश्चित रूप से निगोद जाता है। ( 79 ) सम्मूहदि रक्खेवि य अट्टं माएदि बहुपयत्तेण / सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। जो आर्त होते जोड़ते रखते रखाते यत्न से / वे पाप मोहितमती हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं।। निर्ग्रन्थ नग्न दिगम्बर लिंग धारण करके भी जो बहुत प्रयत्न करके परिग्रह का संग्रह करता है, उसमें सम्मोहित होता है, उसकी रक्षा करता है, उसके लिए आर्तध्यान करता है; वह पाप से मोहित बुद्धिवाला श्रमण, श्रमण नहीं, पशु है, अज्ञानी है। ( 80 ) रागं करेदि णिच्वं महिलावगं परं च सेदि / दसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। राग करते नारियों से दूसरों को दोष दें / सद्ज्ञान-दर्शन रहित हैं वे श्रमण नहिं तिथंच हैं।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर लिंग धारण करके भी जो महिलावर्ग में राग करता है, उनसे रागात्मक व्यवहार करता है, प्रीतिपूर्वक वार्तालाप करता है तथा अन्य निर्दोष श्रमणों या श्रावकों को दोष लगाता है; सम्यग्दर्शनज्ञान से रहित वह श्रमण तिर्यंच योनि वाला है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है। 78. अष्टपाहुड : सूत्रपाहुड, गाथा 1879. अष्टपाहुर : लिंगपाहुड, गाथा 5 80. अष्टपाहुड : लिगपाहुड, गाथा 17
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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