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________________ [कुन्दकुन्द शतक - ( 75 ) णग्गो पावइ दुक्खं जग्गो संसारसायरे भमई / जग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं / / जिन भावना से रहित मुनि भव में भ्रमें चिरकाल तक / हों नगनपरहों बोधि-विरहित दुःख लहेंचिरकालतक।। जिनभावना से रहित अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से रहित मात्र द्रव्यलिंग धारण कर लेने वाला नग्न व्यक्ति दुःखों को प्राप्त करता है, चिरकाल तक संसार-सागर में परिभ्रमण करता है। ऐसा नग्न व्यक्ति बोधि को प्राप्त नहीं होता। ( 76 ) भावरहिओणसिनाइजइवितवंचरइकोडिकोडीओ / जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो।। वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ाकोड़ि वर्षों तप करें / पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें।। वस्त्रादि त्याग कर, हाथ लम्बे लटकाकर, जन्मजन्मान्तरों में कोटि-कोटि वर्षों तक तपश्चरण करे तो भी भाव रहित को सिद्धि प्राप्त नहीं होती। तात्पर्य यह है कि अंतरंग में भावों की शुद्धि बिना बाह्य में कितना ही तपश्चरण करे, कोई लाभ प्राप्त होने वाला नहीं है। ( 77 ) दव्येण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंधाया / परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता।। नारकी तिर्यंच आदिक देह से सब नग्न हैं / सच्चे श्रमण तो हैं वही जो भाव से भी नग्न हैं।। द्रव्य से बाह्य में तो सभी प्राणी नग्न होते हैं। नारकी वतियचजीव तो सदा नग्न रहते ही हैं, कारण पाकर मनुष्यादि भी नग्न होते देखे जाते हैं; पर परिणामों से अशुद्ध होने से भावभ्रमणपने को प्राप्त नहीं होते। 75. अष्टपाहुड : भावपाहुए, गाथा 68 77. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा 67 76. अष्टपाहुर : भावपाहुड, गाथा 4
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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