________________ कुन्दकुन्द शतक ] 143 ( 72 ) समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिवसमो / समलोठ्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।। कांच-कंचन बन्धु-अरि सुख-दुःख प्रशंसा-निन्द में / शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में।। जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान हैं, सुख-दुःख समान है, प्रशंसा-निन्दा समान हैं, पत्थर और सोना समान हैं, जीवन और मरण भी समान हैं, वही सच्चा श्रमण है। तात्पर्य यह है कि अनुकूल-प्रतिकूल सभी प्रसंगों में समताभाव रखना ही श्रमणपना है। भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो य / इय गाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होह।। भावलिंगी सुखी होते द्रव्यलिंगी दुःख लहें / गुण-दोष को पहिचान कर सब भाव से मुनि पद गहें / / भावश्रमण सुख को प्राप्त करता है और द्रव्यश्रमण दुख को प्राप्त करता है। इस प्रकार गण-दोषों को जानकर हे जीव ! तू भावसहित संयमी बन; कोरा द्रव्य संयम धारण करने से कोई लाभ नहीं। ( 74 ) भावेण होइ जग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं / पच्छ दवेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए।। मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से / आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से।। पहले मिथ्यात्वादि दोष छोड़कर भाव से नग्न हो, पीछे नग्न दिगम्बर द्रव्यलिंग धारण करे-ऐसी जिनाज्ञा है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व छोड़े बिना, सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्राप्त किए बिना. नग्नवेष धारण कर लेने से कोई लाभ नहीं है, अपितु हानि ही है। 72. प्रवचनसार, गाथा 241 73. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा 127 74. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा 73