________________ [कुन्दकुन्द शतक चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सोसमोतिणिहिर्के / मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है / दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम समताभाव है।। वास्तव में तो चारित्र ही धर्म है। यह धर्म साम्यभाव रूप है तथा मोह (मिथ्यात्व) और क्षोभ (रागद्वेष) से रहित आत्मा का परिणाम ही साम्य है-ऐसा कहा गया है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन सहित चारित्र ही वास्तव में धर्म है। ( 70 ) धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो / पायदि णिव्याणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं / / प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा / पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा।। धर्म से परिणमित स्वभाववाला आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो मोक्षसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग में युक्त हो तो स्वर्गसुख को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि मोक्ष का कारणशुद्धोपयोगही है शुभोपयोग नहीं। ( 71 ) समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य हॉति समयम्हि / तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा / / शुभोपयोगी श्रमण हैं शुद्धोपयोगी भी श्रमण / शुद्धोपयोगी निराम्रव हैं आस्रवी हैं शेष सब / / श्रमण दो प्रकार के होते हैं :-शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी। शुद्धोपयोगी श्रमण निरासव होते हैं, शेष सासव होते हैं-ऐसा शास्त्रों में कहा है। तात्पर्य यह है कि शुभोपयोग से आस्रव व बंध ही होता है; संवर, निर्जरा वमोक्ष नहीं। इसीप्रकार शुद्धोपयोग से संवर, निर्जरा व मोक्ष ही होता है; आसवव बंधनहीं। 69. प्रवचनसार, गाथा 7 71. प्रवचनसार, गाथा 245 70. प्रवचनसार, गाथा 11