________________ कुन्दकुन्द शतक] एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिवस्स अत्थेसु / णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा।। स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं / भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है।। सच्चा श्रमण वही है, जिसे अपने आत्मा की एकाग्रता प्राप्त हो। एकाग्रता उसे ही प्राप्त होती है, जिसने पदार्थों का निश्चय किया हो। पदार्थों का निश्चय आगम से होता है; अतः आगम में चेष्टा ही ज्येष्ठ है। तात्पर्य यह कि आगम का अभ्यास आवश्यक, अनिवार्य और श्रेष्ठ कर्तव्य है। ( 67 ) आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि / अविजाणंतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू / / जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्वपर को नहिं जानते / वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्वपर को नहिं जानते? / / आगम-हीन श्रमण आत्मा को और पर को नहीं जानता है। पदार्थों को नहीं जानने वाला श्रमणे कर्मों का नाश किसप्रकार कर सकता है? पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं / मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो।। व्रत सहित पूजा आदि सब जिन धर्म में सत्कर्म हैं / दृगमोह -क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म हैं।। जिन शासन में जिनेन्द्रदेव ने इसप्रकार कहा है कि पूजादि करना एवं व्रत धारण करना पुण्य ही है और मोह (मिथ्यात्व) व क्षोभ (राग-द्वेष) से रहित आत्मा का परिणाम धर्म है। तात्पर्य यह है कि शुभभाव पुण्य है और शुद्धभाव (वीतराग भाव) धर्म है। 67. प्रवचनसार, गाथा 233 66. प्रवचनसार, गाथा 232 68. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा 83