________________ [ कुन्दकुन्द शतक ( 63 ) सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि / सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि।। डोरा सहित सइ नहीं खोती गिरे चाहे वन भवन / संसार-सागर पार हों जिनसूत्र के ज्ञायक श्रमण / / जिसप्रकार सूत्र (डोरा) सहित सुई खोती नहीं है, सूत्र रहित खो जाती है; उसी प्रकार सूत्र (शास्त्र) सहित श्रमण नाश को प्राप्त नहीं होते। सूत्रों को जानने वाले श्रमण संसार का नाश करते हैं; क्योंकि संसार के नाश और मुक्ति प्राप्त करने का उपाय सूत्रों (शास्त्रों) में ही बताया गया है। (64 ) जिणसत्थादो अछे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा / खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्यं / / तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से / दृगमोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए।। जिनशास्त्रों के द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वालों के नियम से मोह का नाश हो जाता है; इसलिए शास्त्रों का अध्ययन अच्छी तरह से अवश्य करना चाहिए। सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं / जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा।। जिन-आगमों से सिद्ध हों सब अर्थ गण-पर्यय सहित / जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित / विचित्र गुण-पर्यायों से सहित सभी पदार्थ आगमसिद्ध हैं। श्रमणजन उन पदार्थों को आगम के अभ्यास से ही जानते हैं। तात्पर्य यह है कि क्षेत्र व काल से दूरवर्ती एवं सक्ष्म पदार्थ केवलज्ञान बिना प्रत्यक्ष नहीं जाने जा सकते; अतः वे क्षयोपशम ज्ञानी मुनिराजों द्वारा आगम से ही जाने जाते हैं। 6 4. प्रवचनसार, गाथा 86 . 63. अप्टपाहुड : सूत्रपाहुड, गाथा 3 65. प्रवचनसार, गाथा 235