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________________ कुन्दकुन्द शतक ] ( 60 ) जे णेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया / ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं / असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञान प्रत्यक्ष हैं।। जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो पर्यायें उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं वे अविद्यमान पर्यायें भी ज्ञान में प्रत्यक्ष ज्ञात होती हैं। ज्ञान का ऐसा ही स्वभाव है कि उसमें भूतकालीन विनष्ट पर्यायें और भविष्यकालीन अनुत्पन्न पर्यायें भी स्पष्ट झलकती हैं। (61 ) जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स / ण हयदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परुति / / पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो / फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो? / / यदि अनुत्पन्न और विनष्ट पर्यायें सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रत्यक्ष ज्ञात न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा? सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान की दिव्यता ही इस बात में है कि उसमें भूत-भविष्य की पर्यायें भी प्रतिबिम्बित होती है। अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं / सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहति परमत्थं / / अरहंत-भासित ग्रथित-गणधर सूत्र से ही श्रमणजन / परमार्थ का साधन करें अध्ययन करो हे भव्यजन।। अरहंत भगवान द्वारा कहा गया और गणधरदेव द्वारा भले प्रकार से गैंथा गया जो जिनागम है, वही सूत्र है। ऐसे सूत्रों के आधार पर श्रमणजन परमार्थ को साधते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनागम श्रमणों के लिए परमार्थसाधक है। 60. प्रवचनसार, गाथा 38 62. अष्टपाहुर : सूत्रपाहुब, गाथा 1 61. प्रवचनसार, गाथा 39
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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