________________ 138 [कुन्दकुन्द शतक ( 57 ) दव्येण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्यं विणा ण संभवदि / अव्वदिरित्तो भावो दव्यगुणाणं हवदि तम्हा।। द्रव्य बिन गुण हों नहीं गुण बिना द्रव्य नहीं बने / गुण द्रव्य अव्यतिरिक्त हैं - यह कहा जिनवर देव ने / / द्रव्य के बिना गुण नहीं होते और गुणों के बिना द्रव्य नहीं होता; क्योंकि दोनों में अव्यक्तिरिक्त भाव (अभिन्नपना) है। गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। अतः द्रव्य और गुणों का भिन्न-भिन्न होना संभव नहीं है। द्रव्य और गुणों में मात्र अंशी-अंश का भेद है। ( 58 ) भावस्स पत्थि णासो पत्थि अभावस्स चेव उप्पादो / गुणपज्जएसु भावा उप्पादवए पकुवंति।। उत्पाद हो न अभाव का ना नाश हो सद्भाव में / उत्पाद-व्यय करते रहें सब द्रव्य गुण-पर्याय में।। भाव का अर्थात् जो पदार्थ है, उसका नाश नहीं होता और अभाव का अर्थात् जो पदार्थ नहीं है, उसका उत्पाद नहीं होता। भाव अर्थात् सभी पदार्थ अपने गुण-पर्यायों का उत्पाद-व्यय करते हैं। तात्पर्य यह है कि सत् का कभी नाश नहीं होता और असत् का उत्पाद नहीं होता; पर सभी पदार्थों में प्रतिसमय परिणमन अवश्य होता रहता है। ( 59 ) तक्कालिगेय सव्वे सद सब्भूदा हि पज्जया तासि / वट्ठन्ते ते गाणे विसेसदो दबजादीणं / / असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब / सद्ज्ञान में वर्तमानवत ही हैं सदा वर्तमान सब।। जीवादि द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायों की भांति विशेष रूप से ज्ञान में झलकती हैं। 58. पंचास्तिकाय संग्रह, गापा 15 57. पंचास्तिकाय संग्रह, गापा 13 59. प्रवचनसार, गाथा 37