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________________ कुन्दकुन्द शतक] ( 54 ) मरदवजियदुव जीवोअयदाचारस्यणिच्छिदाहिंसा / पयवस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स।। प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से / तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से।। जीव मरे चाहे न मरे, पर अयत्नाचार प्रवृत्ति वाले के हिंसा होती ही है। यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले के मात्र बाह्य हिंसा से बंध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि बंध का सम्बन्ध जितना अनर्गलप्रवृत्ति से है, उतना जीवों के मरने-जीने से नहीं। अतः बंध से बचने के लिए अनर्गलप्रवृत्ति से बचना चाहिए। दव्यं सल्लक्खणियं उप्पादय्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्ह / / उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत् सत् द्रव्य का लक्षण कहा / पर्याय-गुणमय द्रव्य है - यह वचन जिनवर ने कहा / / उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त सत् जिसका लक्षण है और जिसमें गुण व पर्याय पाई जाती हैं, उसे सर्वज्ञ भगवान द्रव्य कहते हैं। तात्पर्य यह है कि द्रव्य का लक्षण सत् है और सत् उत्पाद-व्यय और धौव्य से युक्त होता है। अथवा गुण और पर्यायवाली वस्तु को द्रव्य कहते हैं। ( 56 ) पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया पत्थि / वोण्हं अणण्ण भूदं भावं समणा परुति।। पर्याय बिन ना द्रव्य हो ना द्रव्य बिन पर्याय ही / दोनों अनन्य रहे सदा - यह बात श्रमणों ने कहीं।। जैन श्रमण कहते हैं कि पर्यायों के बिना द्रव्य नहीं होता; और द्रव्य के बिना पर्यायें नहीं होती, क्योंकि दोनों में अनन्यभाव है। 5 5. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा 10 54. प्रवचनसार, गाथा 217 56. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा 12
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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