________________ 136 [ कन्दकुन्द शतक ( 51 ) आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सय्वण्हू / आउं च ण विति तुहं कहं पु ते जीविदं कवं तेहिं / / सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही / कैसे बचावे वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं?।। जीव आयुकर्म के उदय से जीता है-ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। पर-जीव तुझे आयुकर्म तो देते नहीं हैं तो उन्होंने तेरा जीवन (रक्षा) कैसे किया? ( 52 ) जो अप्पणाद मण्णदि दक्खिवसहिदे करेमि सत्तेति / . सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो।। मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को / यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो?।। जो यह मानता है कि मैं परजीवों को सुखी-दुःखी करता हूँ, वह मूढ़ है, अज्ञानी है। ज्ञानी इससे विपरीत मानता है। ज्ञानी जानता है कि लौकिक सुख व दुख तो जीवों को अपने पुण्य-पाप के अनुसार होते हैं, वे तो उनके स्वयं के कर्मों के फल हैं। उनमें किसी दूसरे जीव का रंचमात्र भी कर्तत्व नहीं है। अज्मवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ / एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स / / मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से / यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से।। जीवों को मारो अथवानमारो, कर्मबंधतो मात्र अध्यवसान (मोह-राग-द्वेष)से ही होता है। निश्चयनय से जीवों के बंध का स्वरूप संक्षेप में यही है। बंध का संबंध पर-जीवों के जीवन-मरण से न होकर जीव के स्वयं के मोह-राग-द्वेष परिणामों से है। अतः बंध से बचने के लिए परिणामों की संभाल अधिक आवश्यक है। 51. समयसार, गाथा 252 53. समयसार, गाथा 262 52. समयसार, गाथा 253