________________ कुन्दकुन्द शतक ] 135 आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं / आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं / / निज आयुक्षय से मरण हो- यह बात जिनवर ने कही / वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं?।। जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है-ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। परजीव तेरे आयकर्म को तो हरते नहीं हैं तो उन्होंने तेरा मरण कैसे किया? अतः अपने मरण का दोष पर के माथे मढ़ना अज्ञान ही है। जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामिय परेहिं सत्तेहिं / सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो।। मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन / यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ! / / जो जीव यह मानता है कि मैं पर-जीवों को जिलाता (रक्षा करता) हूँ और पर-जीव मुझे जिलाते (रक्षा करते) हैं;वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इसके विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि एक जीव दूसरे जीव के जीवन-मरण और सुख-दुख का कर्ता-धर्ता नहीं है, अज्ञानी जीव व्यर्थ ही परका कर्ता-धर्ता बनकर दुखी होता है। ( 50 ) आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू / आउं च ण देसि तमं कहं तए जीविदं कदं तेसि / / सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही / जीवित रखोगे किस तरह जब आयु दे सकते नहीं?।। जीव आयुकर्म के उदय से जीता है-ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है। तुम पर-जीवों को आयुकर्म तो देते नहीं तो तुमने उनका जीवन (रक्षा) कैसे किया? 48. समयसार, गाथा 249 50. समयसार, गाथा 251 49. समयसार, गाथा 250