________________ 134 [कुन्दकुन्द शतक ( 45 ) कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं / ण करेइ एयमादा जो जाणवि सो हयदि गाणी।। करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को / जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हो सद्ज्ञान को।। जो आत्मा कर्म के परिणाम को एवं नोकर्म के परिणाम को नहीं करता है; किन्तु मात्र जानता है, वह ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि परकर्त्तत्व का भाव अज्ञान है, क्योंकि ज्ञानभाव तो मात्र जाननरूप ही होता है। जो मण्णदि हिंसामि यहिसिज्जामियपरेहि सत्तेहिं / सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो।। मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन / यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन।। जो जीव यह मानता है कि मैं पर-जीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है। इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी यह मानता है कि न मैं किसी को मार सकता हूँ और न कोई मुझे मार सकता है। ( 47 ) आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं / आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं।। निज आयुक्षय से मरण हो- यह बात जिनवर ने कही / तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं?।। जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है-ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तुम परजीवों के आयुकर्म को तो हरते नहीं हो; फिर तुमने उनका मरण कैसे किया?-यह बात गंभीरता से विचार करने योग्य है। 46. समयसार, गाथा 247 45. समयसार, गाथा 75 47. समयसार, गाथा 248