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________________ कुन्दकुन्द शतक ] ( 42 ) अस्संजदं ण वन्दे वत्थविहीणो वि तो ण वंदिज्ज / दोणि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।। असंयमी न वन्द्य है दृगहीन वस्त्रविहीन भी / दोनों ही एक समान हैं दोनों ही संयत हैं नहीं।। असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए। इसीप्रकार यदि भावसंयम नहीं है, पर बाहर से वस्त्रादि त्यागकर द्रव्यसंयम धारण कर लिया है तो वह भी वंदनीय नहीं है; क्योंकि असली संयम के अभाव में दोनों ही समान रूप से अवंदनीय है। ण वि देहो वंदिज्जइणविय कुलोणविय जाइसंजुत्तो / को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होइ।। ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की / कोई करे क्यों वंदना गुण-हीन श्रावक-साधु की।। न तो देह वंदनीय है, न कुल वंदनीय है और न जाति ही वंदनीय है। गुणहीनों की वंदना कौन करे? क्योंकि गुणहीन न तो सच्चे श्रावक ही होते हैं और न सच्चे श्रमण ही। ( 44 ) कम्मे णोकम्मम्हि यअहमिदिअहकंच कम्मणोकम्मं / जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव / / मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी / यह मान्यता जब तक रहे अज्ञानि हैं तब तक सभी।। जबतकं इस आत्मा की ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों, मोह-राग-द्वेषादि भावकों एवं शरीरादि नोकर्मों में आत्मबुद्धि रहेगी अर्थात् "यह मैं हूँ और कर्म-नोकर्म मुझ में हैं"-ऐसी बुद्धि रहेगी, ऐसी मान्यता रहेगी, तबतक यह आत्मा अप्रतिबद्ध है। तात्पर्य यह है कि शरीरादि परपदार्थों एवं मोहादि विकारी पर्यायों में अपनापन ही अज्ञान है। 42. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 26 43. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 27 44. समयसार, गाथा 19
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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