________________ [ कुन्दकुन्द शतक जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दसणधराणं / ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।। चाहें नमन दृगवंत से पर स्वयं दर्शनहीन हों / है बोधिदुर्लभ उन्हें भी वे भी वचन-पग हीन हों।। जो पुरुष स्वयं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, पर अन्य सम्यग्दृष्टियों से अपने पैर पुजवाते हैं या पुजवाना चाहते हैं, वे परभव में लूले और गूंगे होते हैं, उन्हें भी बोधि (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की प्राप्ति दुर्लभ है। यहाँ आचार्यदेव लूले और गूंगे कह कर यह कहना चाहते हैं कि वे एकेन्द्रिय पेड़-पौधे होंगे, जहाँ चलना-फिरना और बोलना संभव नहीं होगा। सम्मत्तविरहियाणं सठ्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं / ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं।। यद्यपि करें वे उग्र तप शत-सहस-कोटी वर्ष तक / पर रतनत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व-विरहित साधु सब / / जो मनि सम्यग्दर्शन से रहित हैं, वे हजार करोड़ (दश अरब) वर्ष तक भलीभाँति उग्र तप करें, तब भी उन्हें बोधि (रत्नत्रय) की प्राप्ति नहीं होती है। ( 41 ) जह भूलम्मिविणटे दुमस्स परिवार पत्थि परवड्ढी / तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्मंति।। जिसतरह द्रुम परिवार की वृद्धि न हो जड़ के बिना / बस उसतरह ना मुक्ति हो जिनमार्ग में दर्शन बिना।। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ के नष्ट हो जाने पर उसके परिवार (तना, शाखा, पत्र, पुष्प, फूल आदि) की वृद्धि नहीं होती; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मुनि मूल से ही विनष्ट हैं: अतः उन्हें मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। 39. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 12 40. अष्टपाहुड़ : दर्शनपाहुड, गाथा 5 41. अष्टपाहुड : दशंदपाहुड, गाथा 10