________________ कुन्दकुन्द शतक ] जे वंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरितभट्ठा य / एवे भट्ट वि भट्वा सेसं जणं विणासंति।। जो ज्ञान-दर्शन-भ्रष्ट हैं चारित्र से भी भ्रष्ट हैं / वे भ्रष्ट करते अन्य को वे भ्रष्ट से भी भ्रष्ट हैं।। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, सम्यग्ज्ञान से भ्रष्ट हैं एवं सम्यक्चारित्रसे भ्रष्ट हैं;वे भ्रष्टों में भ्रष्ट हैं। ऐसे लोग स्वयं तो नष्ट हैं ही, अन्य जनों को भी नष्ट करते हैं; अतः ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए। ( 37 ) बंसणभट्टा भट्ठा सणभट्ठस्स पत्थि णिव्याणं / सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति।। दृग-भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं उनको कभी निर्वाण ना / हों सिद्ध चारित्र-भ्रष्ट पर दृग-भ्रष्ट को निर्वाण ना।। जो पुरुष सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं; उनको निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं, परन्तु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। तात्पर्य यह है कि चारित्र की अपेक्षा श्रद्धा का दोष बड़ा माना गया है। जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण / तेसि पि पत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं / / जो लाज गारव और भयवश पूजते दृग-भ्रष्ट को / की पाप की अनुमोदना ना बोधि उनको प्राप्त हो।। 'ये साधु सम्यग्दर्शन-भ्रष्ट हैं'-ऐसा जानकर भी जो पुरुष लज्जा, गारव व भय से उनके पैरों में पड़ते हैं, पाप की अनुमोदना करने वाले होने से उन्हें भी बोधि (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) नहीं है। 36. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 8 38. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 13 37. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 3