________________ 130 [ कुन्दकुन्द शतक जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि / जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।। जो सो रहा व्यवहार में वह जागता निज कार्य में / जो जागता व्यवहार में वह सो रहा निज कार्य में।। जो योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने स्वरूप की साधना के काम में जागता है और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने काम में सोता है। स्वरूप की साधना ही निश्चय से आत्मा का कार्य है। अतः साधुजन व्यर्थ के व्यवहार में न उलझ कर एकमात्र अपने आत्मा की साधना करते हैं। एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण / पिच्छ्यणयासिवा पुण मुणिणो पावंति णिव्याणं / / इस ही तरह परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की / निश्चयनयाश्रित श्रमणजन प्राप्ति करें निर्वाण की।। इसप्रकार निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय को निषिद्ध (निषेध कर दिया गया) जानो, क्योंकि निश्चयनय का आश्रय लेनेवाले मुनिराज ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं। व्यवहारनय निश्चयनय का प्रतिपादक होता है और निश्चयनय व्यवहारनय का निषेधक-इन दोनों नयों में ऐसा ही संबंध है। . दसणमूलो धम्मो उवइट्टो जिणवरेहिं सिस्साणं / तं सोऊण सकण्णे सणहीणो ण वंदिव्यो।। सद्धर्म का है मूल दर्शन जिनवरेन्द्रों ने कहा / हे कानवालो सुनो दर्शन-हीन वंदन योग्य ना।। जिनवरदेव ने अपने शिष्यों से कहा कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। अतः हे जिनवरदेव के शिष्यो ! कान खोलकर सुन लो कि सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति वंदना करने योग्य नहीं है। 34. समयसार, गाथा 272 33. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा 31 35. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 2