________________ कुन्दकुन्द शतक ] 129 ( 30 ) जहणवि सक्कमणज्जो अणज्जभासंविणा दुगाहेदूं / तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं / / अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को / बम त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को।। जिसप्रकार अनार्य (म्लेच्छ) जनों को अनार्य भाषा के बिना कोई भी बात समझाना शक्य नहीं है, उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है। तात्पर्य यह है कि अभूतार्थ होने पर भी निश्चय का प्रतिपादक होने के कारण व्यवहार को जिनवाणी में स्थान प्राप्त है। ( 31 ) ववहारणओ भासवि जीवो देहोय हवदिखलु एक्को / ण दुणिच्छ्यस्य जीवो देहो य कदा वि एक्कहो।। देह-चेतन एक हैं - यह वचन है व्यवहार का / ये एक हो सकते नहीं - यह कथन है परमार्थ का / / व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है, किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और शरीर कदापिएक नहीं हो सकते हैं, वे भिन्न-भिन्न ही हैं। यह असद्भूत-व्यवहारनय का प्रतिपादन है, जिसका निषेध निश्चयनय कर रहा है। ( 32 ) यवहारेणुवदिस्सदि जाणिस्स चरित्त वंसणं णाणं / ण वि णाणं ण चरित्तं ण दसणं जाणगो सुद्धो।। दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से / ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से।। व्यवहारनय से कहा जाता है कि ज्ञानी के ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है; किन्तु निश्चय से ज्ञानी के न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है, ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। यह सद्भुत-व्यवहारनय का कथन है, जिसका निषेध निश्चयनय कर रहा है। 31. समयसार, गाथा 27 30. समयसार, गाथा 8 32. समयसार, गाथा 7