________________ 128 [कुन्दकुन्द शतक ( 27 ) ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया / सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।। वे धन्य हैं सुकृतार्थ हैं, वे शूर नर पण्डित वही / दुःस्वप्न में सम्यक्त्व को जिनने मलीन किया नहीं।। जिन जीवों ने मुक्ति प्राप्त कराने वाले सम्यग्दर्शन को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया; वे ही धन्य हैं, कृतार्थ हैं, शूरवीर हैं, पंडित हैं, मनुष्य हैं। तात्पर्य यह है कि सभी गुण सम्यग्दर्शन से ही शोभा पाते हैं। अतः हमें निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए। स्वप्न में भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे सम्यग्दर्शन में मलिनता उत्पन्न हो। ( 28 ) भवत्थेणाभिगवा जीवाजीवा य पुण्णपावं च / आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं / / चिदचिदानव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा / तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं। भूतार्थ (निश्चय) नय से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नव तत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं। तात्पर्य यह है कि मात्र व्यवहार से तत्त्वों का स्वरूप जान लेना पर्याप्त नहीं है, नवतत्त्वों का वास्तविक स्वरूप निश्चयनय से जानना चाहिए। ( 29 ) ववहारो भूवत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ / भूवत्थमस्सिदो खलु सम्माविट्ठी हयदि जीयो।। शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय / भूतार्थ की ही शरण गह यह आतमा सम्यक् लहे।। व्यवहारनय अभूतार्थ (असत्यार्थ) है और शुद्धनय (निश्चयनय) भूतार्थ (सत्यार्थ) है। जो जीव भतार्थ अर्थात् शुद्ध निश्चयनय के विषयभूत निज भगवान आत्मा का आश्रय लेता है, वह जीव नियम से सम्यग्दृष्टि होता है। 23. अष्टपाड : मोक्षपाहुह, गाथा 89 29. समयसार, गाथा 11 28. समयसार, गाथा 13