________________ कुन्दकुन्द शतक ] ( 24 ) जीवादीसहहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णतं / ववहारा णिच्छ्यवो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं / / जीवादि का श्रद्धान ही व्यवहार से सम्यकत्व है / पर नियत नय से आत्म का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है।। जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जीवादितत्त्वों का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है और अपने आत्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। ( 25 ) सहव्वरओ सवणो सम्माइट्टी हवेइ णियमेण / सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दटुट्ठकम्माई।। नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं / सम्यक्त्व-परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं / / जो श्रमण स्वद्रव्य में रत है, रुचिवंत है; वह नियम से सम्यक्त्व सहित है। सम्यक्त्व सहित वह श्रमण दुष्टाष्ट कर्मों का नाश करता है। अपने आत्मा में अपनापन स्थापित कर अपने आत्मा में लीन हो जाने वाले सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा श्रमण आठ कर्मों का नाश करते हैं, सिद्धदशा को प्राप्त करते हैं। ( 26 ) किं बहुणा भणिएण जे सिद्धा परवरा गए काले / सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं / / मुक्ती गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का / यह जान लो हे भव्यजन ! इससे अधिक अब कहें क्या / / अधिक कहने से क्या लाभ है, इतना समझ लो कि आजतक जो जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना नतो आज तक कोई सिद्ध हुआ है और न भविष्य में होगा। 24. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 20 25. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा 14 / 26. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा 88