________________ 126 [ कुन्दकुन्द शतक ( 21 ) परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणवि तवं वदं च धारेदि / तं सव्वं बालतवं बालवदं बैंति सव्वण्ह।। परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें / सब बालतप है बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें।। परमार्थ में अस्थित अर्थात् निज भगवान आत्मा के अनुभव से रहित जो जीव तप करता है, व्रत धारण करता है। उसके उन व्रत और तप को सर्वज्ञ भगवान बालतप एवं बालव्रत कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान बिना - आत्मानुभव के बिना किये गये व्रत और तप निरर्थक हैं। ( 22 ) वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता / परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विदंति।। व्रत नियम सब धारण करें तपशील भी पालन करें / पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें।। शील और तप को करते हुए भी, व्रत और नियमों को धारण करते हुए भी जो जीव परमार्थ से बाह्य हैं, परमार्थ अर्थात् सर्वोत्कृष्ट पदार्थ निज भगवान आत्मा के अनुभव से रहित हैं, उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती है। निर्वाण की प्राप्ति आत्मानुभवियों को ही होती है। निर्वाण की प्राप्ति आत्मानुभवियों को ही होती है। ( 23 ) जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सहहणं / केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं / / जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें / ... श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें।। जो शक्य हो, वह करे; जो शक्य न हो, न करे; पर श्रद्धान तो सभी का करे; क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान करने वाले को सम्यग्दर्शन होता है-ऐसा कहा है। 21. समयसार, गाथा 152 23. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा 22 22. समयसार, गाथा 153