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________________ 125 कुन्दकुन्द शतक ] ( 18 ) जं जाणइ तं जाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं / तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं / / जानना ही ज्ञान है अरु देखना दर्शन कहा / पुण्य-पाप का परिहार चारित्र यही जिनवर ने कहा।। जो जानता है, वह ज्ञान है;जो देखता है, वह दर्शन है और पुण्य-पाप के परिहार को चारित्र कहा गया है; क्योंकि पुण्य और पाप दोनों ही रागभावरूप हैं और चारित्र वीतरागभावरूप होता है। णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहणं / संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्व।। दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो / संयम रहित तप निरर्थक आकाश-कुसुम समान हो।। चारित्रहीन ज्ञान निरर्थक है, सम्यग्दर्शन के बिना लिंग-ग्रहण अर्थात् नग्न दिगम्बर दीक्षा लेना निरर्थक है और संयम बिना तप निरर्थक है। सम्यग्ज्ञान की सार्थकता तदनुसार आचरण करने में है। तप भी संयमी को ही शोभा देता है और साधुवेष भी सम्यग्दृष्टियों का ही सफल है। ( 20 ) णाण चरितसुद्धं लिंगग्गहण च दसणविसुद्धं / संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ।। दर्शन सहित हो वेष चारित्र शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो / संयम सहित तप अल्प भी हो तदपि सुफल महान हो।। चारित्र से शुद्ध ज्ञान, सम्यग्दर्शन सहित लिंगग्रहण एवं संयम सहित तप यदि थोड़ा भी हो तो महाफल देनेवाला होता है। 18. अष्टपाहुड मोक्षपाहुड, गाथा 37 20. अष्टपाहुड : शीलपाहुड, गाथा 6 19. अष्टपाहुड : शीलपाहुड, गाथा 5
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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