________________ 124 [ कुन्दकुन्द शतक ( 15 ) मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय / तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्येसु।। मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर / निज में ही नित्य विहार कर पर द्रव्य में न विहार कर।। हे आत्मन् ! तू स्वयं को निजात्मा के अनुभवरूप मोक्षमार्ग में स्थापित कर, निजात्मा का ही ध्यान धर, निजात्मा में ही चेत, निजात्मा का ही अनुभव कर एवं निजात्मा के अनुभवरूप मोक्षमार्ग में ही नित्य विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर, उपयोग को अन्यत्र मत भटका, एक आत्मा का ही ध्यान धर। जीवादीसदहणं सम्मत्त तेसिमधिगमो णाणं / रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।। जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है / रागादि का परिहार चारित यही मुक्तीमार्ग है।। जीवादि पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और उन्हीं का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि भावों का त्याग सम्यक्चारित्र है-बस यही मोक्ष का मार्ग है। ( 17 ) तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं / चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहिं।। तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है तत्ग्रहण सम्यग्ज्ञान है / जिनदेव ने ऐसा कहा परिहार ही चारित्र है।। तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन है, तत्त्वग्रहण सम्यग्ज्ञान है और मोह-राग-द्वेष एवं परपदार्थों का त्याग सम्यकचारित्र है-ऐसा जिनेन्द्र देवों ने कहा है। परमतत्त्व रूप निज भगवान आत्मा की रुचि सम्यग्दर्शन, उसी का ग्रहण सम्यग्ज्ञान और उससे भिन्न परद्रव्यों एवं उनके लक्ष्य से उत्पन्न चिदविकारों का त्याग ही सम्यकुचारित्र है। 16. समयसार, गाथा 155 15. समयसार, गाथा 412 17. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा 38